दुनिया से अलविदा कर गये मशहूर शायर अंजुम जौनपुरी...

जौनपुर। रुक जाओ सुबह हो न हो, ये रात आखिरी, शायद हो जिंदगी के ये लम्हात आखिरी, मरने के बाद कब्रा पर आ जाना तुम जरुरी, अंजुम यह कह रहा है कोई बात आखरी.. जी हां हम बात कर रहे है हिन्दुस्तान के मशहूर शायरों में से एक अंजुम जौनपुरी की। उनकी तबियत इतनी खराब हो गयी थी कि इस शायर के दाहिने पैर को काटने की नौबत तक आ गयी थी। बीएचयू के डॉक्टरों ने बताया था कि पैर की एक नस दब जाने के कारण पैर में इनफेक्शन फैल गया है। इनकी जिंदगी बचाने के लिए पैर का ऑपरेशन कर काटना आवश्यक था उनके बेटे मुफ्ती हैदर ने बीएचयू में उनके पैर का ऑपरेशन कराकर पैर काटा। इस दौरान उनकी हालत खराब थी कि वो अपनी याददाश्त ही भूल गये फिर उन्हें वापस घर लाया गया। एक बार पुन: उनके पैर को काटा गया। इस बार हालात ठीक थे पर आज उन्होंने इस दुनिया को आखिरकार अलविदा कह दिया।

गौरतलब हो कि नगर के अजमेरी मोहल्ले निवासी मुफ्ती मेंहदी हैदर उर्फ अंजुम शायरी (67) की दुनिया में 1972 में बांदा में आयोजित अखिल भारतीय मुशायरे में अपनी गजल पढ़कर रखा था। उनके शेर कितने गहरे है आप इसी से समझ सकते है कि 'गर्दिश के साये कोई रोये, कोई मुस्कुराए, जाने कितनी निगाहें उठी, जब भी गुजरे वह सर झुकाए.." लोगों के दिलों में उतर गयी। फिर क्या था एक के बाद एक सौ से ज्यादा देश-विदेश के मुशायरों में अपनी शायरी के दम पर न सिर्फ उन्होंने मशहूर शायरों के साथ अपना नाम जोड़ा बल्कि अपने उस्ताद कैफ भोपाली से शायरी की दुनिया की सीख ली। इस दौरान फिराक गोरखपुरी, अली सरदार जाफरी, वामिक जौनपुरी, कुमार बाराबंकी व कैफी आजमी जैसे चोटी के शायरों से उनके संबंध जगजाहिर होने लगे। 1981 में वो पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के कराची में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय मुशायरे में भी शामिल हुए थे जहां उनकी गजल के लोग दीवाने हो गये थे। इस दौरान कई एवार्ड से भी नवाजा गया। उन्होंने करबला के शहीदों पर सैकड़ों नौहे भी लिखे है। अंजुम जौनपुरी के दादा मुफ्ती खान बहादुर हैदर हुसैन 1913 से 1938 तक नगर के नगर पालिका परिषद व डिस्टिक बोर्ड के अध्यक्ष रहे। इनके पुत्र मुफ्ती अल्ताफ हैदर परिवहन विभाग में ट्रैफिक सुप्रीटेडेंट के पद पर तैनात थे और 1971 में खुद अंजुम जौनपुरी परिवहन विभाग में टेक्निशियन के पद पर तैनात हुए थे और पूर्वांचल के कई जिलों में उन्होंने अपनी सेवाएं दी लेकिन शायरी से उनका जुड़ाव इतना था कि इन्होंने 2002 में सरकारी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया और सिर्फ उर्दू शायरी के लिए ही पूरा वक्त देन लगे। आखिरी वक्त में उनका कहना था कि शायरी उनके जिस्म की रुह है और ये उनके मरने के बाद भी जिंदा रहेगी। उन्होंने अपनी मशहूर गजल 'रुक जाओ सुबह न हो, ये रात आखरी, शायद हो ये जिंदगी के लम्हात आखिरी, मरने के बाद कब्रा पर आना तुम जरुर, अंजुम यह कह रहा है कोई बात आखिरी" कहकर अपनी बात पूरी दुनिया के सामने रख दी।

No comments

Post a Comment

Home